कविता..
पीठ पर चांद..
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कल मैं चांद पर
घूमने गया.....
वहां की चांदनी में मैंनें
झर-झर बहते चश्मे
का पानी पिया!!
वहां का पानी बिल्कुल
साफ था. इतना साफ की
नीचे
के साफ चिकने पत्थर
पानी में साफ तैरते देखे जा
सकते थें!!
मैंनें चांद की चांदनी में तैरती
साफ हवा को भी छूआ!!
हवा, फेफड़ों में भर गई !!
वो हवा धरती की जहरीली
हवा जैसी नहीं थी!!
वहां के बागों में बहुत हरियाली
थी, मैनें बिखरी चांदनी के बीच
सेव के पेड़ को छूआ
अहा, ठस- ठस लाल सेव थें
रस से भरे!! खाकर, आत्मा
तृप्त हो गई!!
फिर, चांद ने मुझसे पूछा-
कि तुम बहुत दिनों के बाद
यहां घूमने आये हो ??
मैनें हां में सिर हिलाया !!
फिर, चांद ने जिद कि, की चलो
मुझे भी ले चलो घरती पर घूमाने!!
मैंनें बहुत मना किया, लेकिन चांद
नहीं माना!!
और, मैनें टांग लिया
चांद को अपनी पीठ पर!!
धरती, पर आने के बाद
चांद का दम फूलने लगा!!
चांद ने देखा, नदियों का
गंदा मटमैला पानी !!
चांद, को गंदा, पानी
देखकर ऊबकाई आने
लगी !!
चांद ने चखा धरती पर
का खाना और, थोडा़ सा
चखकर छोड़ दिया पूरा
का पूरा खाना!!
चांद ने अनुनय किया कि अब मुझे
वापस मेरी घरती पर छोड़ आओ!!
मेरा दम अब फूलने लगा है !!
मैं यहां पर अब नहीं रह सकता!!
मैनें टांग लिया फिर से चांद को
अपनी पीठ पर , और पहुंचा आया
चांद को, उसकी धरती पर!!
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महेश कुमार केशरी
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