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Sunday, April 4, 2021

कविताएं

 ( १ )     हमारे वर्तमान की त्रासदी..


एक दिन थकी-हारी सी मैं
लौट रही थी
धीरे-धीरे
अपनी "कविताओं" में ,
सहसा, 
लगा कि कुछ तो है
जो छूट गया है
पीछे ही ,

फिर महसूस हुआ
"शब्द" थे तुम्हारे
..संग चल रहे थे
न जाने कब से !!

याद है न..
हम मिले थे
उस दिन
सदियों बाद 
प्रतीक्षारत.. भाव-विह्वल
पर, रहे निशब्द ही ,
कहते कुछ कैसे 
विवशताएं मेरी भी थीं
असमंजस में तुम भी थे !!

सुनों..
चलना होगा इसी अधूरेपन के साथ
और शायद, यही त्रासदी है हमारे वर्तमान की !!

( २ ) प्रतीक्षाएं खत्म कहां होती हैं..


दूर .. रेगिस्तान के ऊंचे टीले पर
आकाशोन्मुख
मुझे दिख जाती है
अक्सर
एक कविता
पानी का गीत गाते हुए !!

उसके गीतों में
ज़िक्र नहीं है कहीं भी
बादलों का ,
वह याद नहीं करती रह-रहकर
बारिशों को ,
भरी दोपहरी में भी
नहीं कोसा कभी उसने 
धूप को ,

उसे नहीं होता भ्रम
नदियों का
मृग मरीचिका की तरह ,

उसने कभी दोषी नहीं ठहराया
पृथ्वी को 
उसकी परिक्रमाओं के लिए ,

वह तो
भोली , अबोध बालिका सी
थामें है कसकर "प्रेम बीज"
मुट्ठी में ,
वह आलाप रही है
प्रेमाख्यान
कि प्रेम रहा तो
छाई रहेंगी हरियाली पृथ्वी पर !!

हांलांकि
प्रतीक्षाएं खत्म कहां होती हैं
वरन् बढ़ती रहती हैं वक्त के साथ-साथ ही !!


( ३ )     मैं फिर लौट आऊंगी..

मैं फिर लौट आऊंगी
धूप के उजास सी
कि करूंगी ढेरों मन भर बातें
उस जाती हुई ओस से भी
जिसके हिस्से में आती हैं सिर्फ रातें ही !!

मैं फिर लौट आऊंगी
पहली बारिश सी
कि सिमट जाऊंगी मिट्टी में
और होती रहूंगी तृप्त
उसकी सोंधी-सोंधी सी महक में !!

मैं फिर लौट आऊंगी
टूटे हुए तारे सी
कि सुन लूंगी हर एक दुआ
हर उस प्रेम-पथिक की
जिए जा रहा है जो "इंतज़ार" में ही !!

मैं फिर लौट आऊंगी
एक लाडली कविता सी
"खुशनुमा मौसम" की ही तरह
बस, बची रह सकूं इस बार
किसी तरह इस प्रलयकारी तूफान से !!


( ४ ) तुम भी बचाए रखना..

इतना कुछ तो "कहा"
पर, जैसे बाकी है अभी 
कहना बहुत कुछ ,
इस संक्षिप्त होते समय में
हर सांस
जैसे जोड़नी हों अभी 
कितनी ही बातों की कतरनें !!

साझा करनी है अभी
अनगिनत सिक्कों की कहानियां
जो छिपाकर रखी थी तुमसे
उस गुल्लक में ,
सुनों..
ये गुल्लक तो तुमको ही फोड़नी है ,

इस आंगन जितने आकाश में
जैसे बाकी हो अभी
बहुत कुछ देखना ,
सुनों..
हम-तुम संग देखेंगे वो टूटा हुआ तारा भी ,

सुनों..
मैं बचाए रखूंगी
थोड़ी सी धूप
वहां उस मुंडेर पर ,
तुम भी बचाए रखना
थोड़ी सी चांदनी
आकाश के उस कोने में !!


( ५ )     सफर है ये, कुछ तो छूटना ही था..


अलग फलसफे हैं हमेशा ही तेरे, सुन ऐ जिन्दगी ,
बटोरकर डिग्रियां भी यूं लगे कि कुछ पढ़ा ही नहीं !!

ये पता कि सफ़र है ये, कुछ तो‌ छूटना ही था कहीं ,
पर, "वही" क्यों छूटा, अब तक जो मिला ही नहीं !!

ये बात और है कि समझा ही लेंगे खुद को कैसे भी ,
मैं उसकी राह भी तकूं कैसे जिसको आना ही नहीं !!

अक्सर गुज़र जाती है जिंदगी रास्ते तय करने में ही ,
वो जो मिले हैं पहली दफा, लगे आखिरी भी नहीं !!

दोस्तों, कश्मकश का दौर ये बहुत लंबा है शायद ,
हक जताऊं कैसे, न वो पराया है, हमारा भी नहीं !!


नमिता गुप्ता "मनसी"
उत्तर प्रदेश,मेरठ

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