गुलाम और गुलामी
हम जल रहे थे, तो कोई बचाने न आया |
अपने महल और मकान से |
उस वक़्त, वक़्त ने परिचय करा दिया हमारा...
एक इंसान को इंसान से |
सबके सब गुलाम हैं,
सफेद पोषाक चोरों की |
जिनके वस्त्र के नीचे काला धब्बा है,
वे क्या सुनेंगे औरों की |
सब गुलाम हैं, पर उन्हें यह एहसास नहीं है |
परिवर्तन की हवा, क्रांति लाने को तत्पर |
लापरवाहों को इस बात का,
फिर भी कोई परवाह नहीं है |
शासकों, अधिनायकों और तानाशाहों !
उन्हें गुलामी का एहसास इस कदर करा दो,
जिससे वे एक दिन स्वयं बोलें --
हमें स्वतंत्र होना है |
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
~ महेन्द्र कुमार मध्देशिया
छात्र; दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
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