इस अनोखे काव्य संकलन से गुजरते हुए यह एहसास होता है कि जैसे संपादिका अनुपमा अनुश्री ने बहुत ही कुशलता से 51 रचनाकारों को शामिल कर एक ऐसा गुलदस्ता तैयार किया है जो पाठक के भीतर मीठे ढंग से एक संस्कार जगा जाए, ह्रदय को झंकृत कर दें, मस्तिष्क को कुछ सोचने को मजबूर कर दे। यह उनके धैर्य, संयम और निष्ठा का प्रमाण है कि उन्होंने देश-विदेश के 51 रचनाकारों को शामिल करके यह साबित कर दिया है कि कवि की संवेदना किसी देश, काल या किसी विशेष विचार से नहीं बंधी रहती ,उसकी संवेदना के दायरे में जड़ से लेकर चेतन तक सभी समा जाते हैं । यह साझा काव्य संकलन इस दृष्टि से श्लाघनीय है ।
संपादक ने संपादकीय से अज्ञेय जी के शब्दों में अपनी बात बड़ी कुशलता से कही है -"कविता का यथार्थ से, सत्ता से टूट जाना, मनुष्य का पंगु हो जाना है। मृतप्राय हो जाना है। पशुवत हो जाना है। यथार्थ सत्ता से संबंध कैसे जुड़े, यही आज की कविता की सबसे बड़ी चिंता है " यहां यथार्थ सत्ता से क्या आशय है संपादक के भावों से स्पष्ट हो जाता है कि अगर आपको अपनी अंतरात्मा पर विश्वास है तो आप खरा सोना है कविता के लिए। अज्ञेय के उपरोक्त यथार्थ को ,वर्तमान के बहाने भविष्य को इसी दृष्टि से देखना है। वर्तमान के बहाने भविष्य को आईना दिखाने में यदि कवि की कविता समर्थ होती है तो वह कविता अमर हो जाती है ऐसी कविता वर्ण वर्ण पर विराजित हो कर मंगल गांधी रचती है और समाज को नया चिंतन, नई दिशा दे कर नया इतिहास भी रचती है। मैं अनुश्री के इस कथन से पूर्णतः सहमत हूं।
डॉ उर्मिला मिश्र की पंक्तियों में यह सत्य उजागर हुआ है- आनंद का विस्तार है फूल तुम्हारा झड़ना।
माटी की देह में खुशबू का रमना।
पैरों तले कुचले गए, फिर भी नहीं चीत्कार है।
कांटो में रहकर भी निश्छल व्यवहार है।।
अलका अग्रवाल सिगतिया की मर्मस्पर्शी कविता "वादा करो ना मां"को पढ़कर लगता है कि भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया एक तो हो रही है लेकिन आदमी- आदमी के लिए पराया हो गया है। अलका निगम की अस्ताचलगामी सूर्य में-
उदित और अस्त के बीच
अपना कर्तव्य निभाना आसान नहीं होता!
बुझना पड़ता है
फिर से जलने के लिए।
यह पंक्तियां आत्मीयता का वितान रचते हुए कर्तव्य बोध के ध्येय से संप्रक्त हैं। इसी बिंदु पर आकर काव्य संस्कारों को बल मिलता है। आरती सिंह एकता की 'अमृत्व का दिया' और' मणिकर्णिका' की आंतरिक लय में आत्मीयता, रिश्तो की गर्माहट और अपनत्व की चमक है। तंजानिया ,दक्षिण अफ्रीका से सूर्यकांत सुतार की कविता शहीद का आखिरी पत्र
मातृभूमि की पुकार पर
स्वयं को करता अर्पण,
स्वीकार करना मां,
मेरा अंतिम पत्र समर्पण। पढ़ कर ऐसा लगता है कि उनके अश्रुओं के पानी को छूने वाला पाठक भीतर तक नम हो जाता है। जब कवि में पाठक को नम करने की शक्ति हो तो विषय तलाशने नहीं पड़ते ।
विषय स्वयं उसकी कलम में आकर झरने लगते हैं। शोभा ठाकुर ने भी शहीद कविता में "बलिदानियों को देश का नमन "कह कर नमन किया है। बिंदु त्रिपाठी की "एक दिया अपने लिए भी जलाना" नारी के आत्म गौरव और सम्मान की एक सुंदर रचना है। डॉ शोभा जैन ने "सभी इतिहास रचने में लगे हैं "द्वारा जनप्रतिनिधियों द्वारा जो सेवा की जा रही है उसका कच्चा चिट्ठा खोलने का एक प्रयास किया है-होड़ सी लगी है
भीड़ भी अंततः व्यवस्था की दास हो ही जाती है। प्रतिद्वंदिता में आदमी नहीं मरते!
मरते हैं सभ्यताएं, विचार
और उन से बुनी उम्मीदें।
डॉक्टर जितेंद्र पांडे की "उदास न हो साथी" से वर्तमान समाज की सड़न ,नैतिक पतन, प्रशासनिक अकर्मण्यता, दांवपेच एवं घिनौनापन, भ्रष्टाचार देखकर कहा है - शिक्षा से बनेगा चरित्र
चरित्र से बनेगा देश
बस उदास न हो साथी।क्योंकि रोजगार आधारित शिक्षा प्रणाली से
मुखर होगा मौन
जरूर बदलेगी
राजनीति की विषकन्या देवकन्या में। परेशान न हो साथी।
संगीता तिवारी ने बचपन कविता में बचपन को शोषण से बचाने के लिए कहा है- कि बचपन को बचाने के बड़े-बड़े दावे करते हैं
लेकिन कोई ठोस काम क्यों नहीं करते! कृष्ण गोपाल की तीन कविताएं 'पुरुष एक अधूरी कविता" व' तुम स्त्री हो' और 'बांसुरी वाला' में संवेदना अपनी पूरी जीवंतता से उपस्थित हैं। "तुम स्त्री हो" वे कहते हैं- हाँ
तुम स्त्री हो
प्रकृति हो
जननी हो
इस संसार में
जो कुछ है
सम्भव नहीं है
तुम्हारे बिना
दर्शन बताता है पुरूष
अपरिवर्तनशील
मगर प्रकृति
परिवर्तनशील होती है।
मगर सच तो ये हैं
बदलते वक्त के साथ मैंने
इस सत्य को उल्टा पाया है
नहीं बदल सकी स्त्री
युगों से अपने संस्कार
पुरूषों को तो
मैंने बद से
बदतर होते पाया है!
स्त्री को प्रकृति सम विराट स्वरूप देने वाली एक मर्मस्पर्शी रचना है।
सविता अग्रवाल की" पेड़ की आत्मकथा"एवं वीणा सिन्हा की ' फिर भी जीना लड़की' ममता श्रीवास्तव की 'अपना देश' , डॉ उर्मिला मिश्रा की 'उद्घोष', सरन घई की 'परिवर्तन' इकराम राजस्थानी की 'मजदूर का लॉकडाउन"आदि रचनाएं अपने समय की धरोहर हैं। अनुपमा अनुश्री जहां अपनी रचना" युवा शक्ति" से युवाओं का आवाहन करती हुई दिखाई देती हैं, कि कब तक रहोगे अपनी कमजोरियों के शिकार ' सामाजिक विकलांगता खत्म करके ' समाज और देश के लिए कुछ कर जाओ' अपनी दूसरी कविता " पुरुषों की सोच पर विमर्श जरूरी" में अनुश्री भारत की ललनाओं की विकास गाथाओं को चित्रित करती हुए कहती हैं कि "कैसा नारी विमर्श !विमर्श तो पुरुष की उस सोच पर होना चाहिए, जो जीने नहीं देता, नारी को सहर्ष ।" वहीं तीसरी कविता 'अनिंद्य सुंदरी' में सृष्टि के विपुल अद्भुत नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन है। काव्य संकलन में तेज धूप, फागुन , हरसिंगार के रंग, आदमी- स्त्री ,प्रेम ,रिश्ते, परिस्थितियों की कुंठा, देश प्रेम, प्रकृति- पर्यावरण , अक्षत सौंदर्य की छटा आदि से अंत तक छायी हुई है। पुस्तक के स्वरूप (आवरण, अक्षर संयोजन,साज-सज्जा, आकल्पन) और अंतर्वस्तु में सामंजस्य है ,संतुलन है जबकि प्रायः ऐसा होता नहीं है। कृति में संप्रेषणीयता है, पठनीयता है ,ताजगी है और समकालीन दौर में अध्यात्म, भारतीय जीवन मूल्यों, उत्कृष्ट परंपराओं और गौरवशाली संस्कृति , विरासत का उद्घोष है। मैं इस अंतर्राष्ट्रीय साझा काव्य संकलन के संपादन हेतु अनुपमा अनुश्री को साधुवाद और शुभकामनाएं देता हूं और कामना करता हूं कि इसी तरह का रचनात्मक प्रयास समाज में स्थापित होता रहेगा।
@डॉ प्रेम भारती
वरिष्ठ साहित्यकार , चिंतक, व्याकरण विद।
भोपाल
पुस्तक- आरंभ उद्घोष 21वीं सदी का
(अंतर्राष्ट्रीय साझा काव्य संकलन- 51 रचनाकार)
संपादिका- अनुपमा अनुश्री
प्रकाशक - बुक रिवर
पृष्ठ संख्या - 285
मूल्य - ₹300
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